शुक्रवार, 19 मार्च 2010

बिहार


भारतीय वायु सेना में मेरी आखिरी पोस्टिंग बिहटा (पटना-आरा के बीच थी) में थी. कुछ दिनों के लिए हमलोग एक 'क्विक रिएक्शन टीम' में शामिल रहते थे- यह कमाण्डो-जैसी काली ड्रेस उन्हीं दिनों की है.  



यह मूर्ति पायी तो कहीं और गयी थी, पर इसे "दीदारगंज की यक्षिणी" के नाम से जाना जाता है. (पटना संग्रहालय)


समझ ही सकते हैं- ये नालन्दा विश्वविद्यालय के अवशेष हैं. हम तीन परिवार- ठाकुर, सुन्दर और मैं- नालन्दा और राजगीर घूमने गये थे. बड़ा मजेदार ट्रिप रहा. अपने जन्मदिन वाली सुबह उठकर मैं बाहर जाकर एक 'बोलेरो' बुक कर आया- एक घण्टे में उसे अपने क्वार्टर में पहुँचने के लिए कहा था मैंने. आकर ठाकुर को तैयार होने बोला. वह चौंक पड़ा- ऐं, ऐसे इतना बड़ा प्रोग्राम बनता है? खैर, उसने जल्दी से सुन्दर को भी तैयार किया- उसकी ड्यूटी एडजस्ट की. राजगीर में एक होटल में रुककर अगले दिन हम खूब घूमे- बौद्ध स्तूप, वहाँ तक जाने के लिए 'रज्जू मार्ग', अर्जुन के रथ के पहियों के निशान, जरासन्ध का अखाड़ा, वगैरह- कुल-मिलाकर बहुत अच्छा लगा. हाँ, गर्म पानी वाले कुण्ड के आस-पास गन्दगी देखकर बहुत दुःख हुआ था- अब शायद साफ-सफाई हो. लौटते समय नालन्दा गये थे. 
तस्वीरें सभी परिवार के साथ हैं- अतः एक समूह-तस्वीर से अपनी तस्वीर को 'क्रॉप' करके यहाँ पेश किया गया.   



मनेर शरीफ के दरगाह के ये दो चित्र हैं. बिहटा में रहते हुए कई बार यहाँ आना हुआ था. एकबार तो 'लिविंग-इन' लड़कों के साथ आया था. यहाँ से हम सोन नदी के किनारे गये थे- कोइलवर पुल के नीचे... सरसों के खेत के किनारे बैठ कर हमलोगों ने महफिल जमाई थी... 
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'लौट के बुद्धू घर को आये'- बिहार से ही मैं 1985 में भारतीय वायु सेना में भर्ती हुआ था (तब झारखण्ड नहीं बना था) और बीस वर्षों की सेवा (इस ब्लॉग के हिसाब से 'यायावरी') की समाप्ती भी बिहार (बिहटा) से ही हुई. 2005 में सेवामुक्त होकर मैं अपने घर- बरहरवा लौट आया.
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आप देख सकते हैं कि अब मेरा कैमरा भी खराब होने लगा है. अतः अब फोटोग्राफी भी बन्द.

पंजाब-हिमाचल-जम्मू






ऊपर की तस्वीरें शिमला की हैं. दो परिवार- मैं और हालदार- दिसम्बर में गये थे वहाँ- बर्फ तो देखने नहीं मिली, मगर यात्रा यादगार रही.
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ये तस्वीरें प्रसिद्ध "बाघा बॉर्डर" की है- जहाँ सूर्यास्त से पहले भारत के सीमा सुरक्षा बल के जवान तथा पाकिस्तान के रेंजर एक साथ परेड करते हुए अपने-अपने झण्डे उतारते हैं तथा आपस में हाथ मिलाते हैं. परेड देखने लायक होती है. अब शायद सूर्यास्त से काफी पहले यह होता है. यहाँ दो बार आना हुआ था. एक बार हम दो परिवार- हमलोग तथा घोष यहाँ आये थे; तथा दूसरी बार तब आना हुआ था, जब हमने माँ-पिताजी, चाचा-चाची, बड़ी दीदी-जीजाजी को "वैष्णों देवी" के दर्शनों के लिए बुलाया था. हाँ, मेरा छोटा भाई बबलू, भगना ओमू तथा भगनी कोमल भी थी. 
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हलवारा के पास कोई एक गुरुद्वारा है, जो अपनी सजीव मूर्तियों के लिए प्रसिद्ध है. मूर्तियों में वहाँ सिक्खों के इतिहास को जीवन्त कर दिया गया है. हम तीन या चार परिवार तथा दो बैचलर (लिविंग-इन) अपने-अपने स्कूटर-मोटर साइकिल पर यहाँ आये थे. और भी कई गुरुद्वारों में गये थे हम. 
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बताने की जरूरत नहीं- यह "स्वर्ण मन्दिर" है. यहाँ भी दो बार आना हुआ था. 
"जो बोले सो निहाल- सत श्री अकाल!" 

आसाम-मेघालय-अरुणाचल


दरअसल, भालूपोंग (अरुणाचल प्रदेश) हम तीन दोस्त सपत्नीक गये थे- सोदपुर का सुशान्तो विश्वास, कानपुर का धीरज और मैं. मेरा सिंगल फोटो यही एक है. इसलिये वहाँ की प्राकृतिक खूबसूरती- खासकर, बल खाती जयभराली नदी की खूबसूरती- मैं आपलोगों के सामने नहीं रख पा रहा हूँ.
दरअसल, वहाँ "कोयला" फिल्म की शूटिंग करने माधुरी दीक्षित तथा शाहरूख खान आये थे. (सम्भवतः यह राकेश रोशन की फिल्म थी.) फिल्म की टीम तेजपुर के वायु सेना के हवाई अड्डे पर ही उतरी थी.
हमने बाद में सोचा- ऐसा क्या है भाई "भालूपोंग" में. और हम भी चल पड़े. आप यकीन नहीं कीजियेगा- हमें अरूणाचल प्रदेश की सीमा में प्रवेश करने से रोका जा रहा था- जबकि यह हमारे देश का ही एक राज्य है! अगर मैं अपना पहचानपत्र साथ नहीं ले गया होता, तो शायद हमें बैरंग लौटना पड़ता. सोचिये- नेपाल की सीमा में प्रवेश करते वक्त कोई पूछने वाला नहीं होता- जबकि वह एक दूसरा देश है. क्या इसे ही "विडम्बना" कहते हैं?
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विवाह के बाद ही हमारा शिलाँग जाना हुआ था. बहुत ही खूबसूरत जगह!
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यह प्रसिद्ध "कामाख्या" मन्दिर है. दो बार जाना हुआ था. एक बार तो पाण्डे (शेरघाटी, गया का जयशंकर पाण्डे) के परिवार के साथ. (उसकी साली साहिबा आयी हुई थी.) दूसरी बार मैं अपनी पत्नी के साथ गया- शिलाँग से लौटते वक्त.) 
यहाँ के मन्दिरों की खासियत मैंने यह देखी कि गर्भगृह में देवी-देवता का स्थान फर्श से नीचे की ओर होता है, न कि ऊँचाई पर. कारण समझ में नहीं आया. 
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सोनाभील के चाय बगान में. तब मैं अविवाहित था. तस्वीर सफेदी ने खींची थी. (जी हाँ, 'सफेदी' नाम था उसका. भागलपुर का था.) 
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एक शाम ब्रह्मपुत्र नद के किनारे... तस्वीर सफेदी ने... 
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ये भी ब्रह्मपुत्र तीर की तस्वीरें हैं... तस्वीरें- नहीं सफेदी नहीं, अंशु ने खींची है- मेरी पत्नी. तेजपुर में रहने के दौरान ही मेरठ आकर मैंने शादी की थी. 

दिल्ली





















विनय मेरे लंगोटिया दोस्तों में एक है. पत्थर के व्यवसाय में पैसा तो उसने कमाया, मगर घूमना ज्यादा हुआ नहीं था. एक बार भड़क गया- गाली निकालते हुए बोला- आग लगे इस पैसे में- अभी तक सा.. भागलपुर से आगे नहीं गये हैं!... और वह मेरे साथ चल पड़ा. मैं तब वायु सेना ग्वालियर में पोस्टेड था. 
पहले हमदोनों दिल्ली घूमे, फिर आगरा घूमे और फिर ग्वालियर. बड़े अच्छे गुजरे वे कुछ दिन. 
मैं तो दंग बाद में यह देखकर हुआ कि जितनी तस्वीरें उसने खींची, सारी लाजवाब थीं- जबकि उसे फोटोग्राफी करते हुए मैंने कभी देखा ही नहीं था. 
खैर, एक सुबह मैं उसे ग्वालियर स्टेशन पर 'चम्बल एक्सप्रेस' में बैठा आया- वह सकुशल बर्द्धमान उतरकर वहाँ से बरहवा चला आया. 

शिवपुरी







शिवपुरी जाते वक्त रास्ते में चाय पीने के लिए एक ढाबे में हमलोग रुकते हैं. रंजन चौधरी सिगरेट नहीं पीता, मगर मजाक में देवगण से वह सिगरेट माँगता है. देवगण सिगरेट बढ़ाते हुए.