
सुबह-सुबह जब मैं ओरछा से निकला, तब एक शान्त तालाब के किनारे मैंने उगते हुए सूर्य का यह फोटो खींचा.
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दाऊजी के खण्डहर से पीछे रामराजा मन्दिर का शिखर दीख रहा है.
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रामराजा मन्दिर के शिखर की 'लास्ट बट वन' ऊँचाई. अब इसके बाद पत्थर की स्लेटों (सामने दीख रही है) पर पैर रखकर शिखर की चोटी पर पहुँचा जा सकता था, जिसकी हिम्मत मैं नहीं जुटा सका. (पता नहीं, आजकल इतनी ऊँचाई पर भी जाने की अनुमति है या नहीं!)
(यह बहुत ऊँचा मन्दिर है- मन्दिर क्या, एक किला ही है.)
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दाऊजी के खण्डहर.
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उन दिनों बेतवा नदी के तट पर कोई यज्ञ चल रहा था- साधू-सन्यासीगण पहुँचे हुए थे.
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बल खाती बेतवा नदी...
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नदी पर एक पुल...
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पुल पर से गुजरते कुछ श्रद्धालु...
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खजुराहो से लौटते समय मैं बेतवा के तट पर बसी ओरछा नगरी गया. वहाँ के दृश्यों ने मुझे कैमरे में ब्लैक एण्ड व्हाईट रील डलवाने के लिये मजबूर कर दिया था. बड़ी मुश्किल से एक स्टुडियो में ब्लैक एण्ड व्हाईट रील मिला- उस वक्त स्टुडियो का मालिक नहीं था- स्टाफ ने रील मुझे बेच दिया. रात में स्टाफ मेरे धर्मशाला में आ गया रील माँगने- मालिक के कहने पर. मैंने झूठ कह दिया कि रील मैंने लोड कर लिया है. दरअसल, मैं श्वेत-श्याम फोटोग्राफी के लिए बेचैन हो गया था.
आज, उस स्टुडियो वाले से मैं माफी माँगता हूँ.
परिणाम देखने के बाद मुझे महसूस हुआ कि मुझे रंगीन छायांकन ही करना चाहिए था- सफेद-काले छायांकन के लिए बहुत अनुभव की जरूरत है. मैं इन तस्वीरों में वह प्रभाव पैदा नहीं कर पाया, जो वास्तव में होना चाहिए था.
आज, उस स्टुडियो वाले से मैं माफी माँगता हूँ.
परिणाम देखने के बाद मुझे महसूस हुआ कि मुझे रंगीन छायांकन ही करना चाहिए था- सफेद-काले छायांकन के लिए बहुत अनुभव की जरूरत है. मैं इन तस्वीरों में वह प्रभाव पैदा नहीं कर पाया, जो वास्तव में होना चाहिए था.
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