ये प्रतिमायें एक हजार साल पुरानी हैं. इन्हें देखकर ही पश्चिम वालों को समझ में आता होगा कि वे भारतीयों के मुकाबले कितने पिछ्ड़े रहे थे और हैं.
साइकिल मेरी 'तन्वी' ही है, बस ओवरहॉलिंग कराते समय किसी के कहने पर मैंने इसे रंग भी करा लिया था.
ग्वालियर से साइकिल पर ही मैं खजुराहो गया था- एक एडवेंचर के रुप में. 15 फरवरी' 95 की सुबह यात्रा पर निकलते समय देवगण और दत्ता विदा करते हुए.
(8 दिनों की इस यात्रा की डायरी को कभी किसी ब्लॉग में डाला जायेगा.)
28 सितम्बर 12
उस डायरी के पन्नों को वेबसाईट पर उतारना मैंने शुरु कर दिया है-
http://ek-cycle-yatra.webnode.com/
28 सितम्बर 12
उस डायरी के पन्नों को वेबसाईट पर उतारना मैंने शुरु कर दिया है-
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